Nature: इस धरती पर यदि हम यह मानकर जीते हैं कि हमारे जीने से धरती पर फर्क पड़ता है, तो कोई चिंता की बात नहीं है। लेकिन यदि हम यह मानकर जीते हैं कि हमारे कैसे भी रहने से इस प्रकृति को कोई फर्क नहीं पड़ता, तो यह बहुत चिंतनीय विषय है। क्योंकि हमारे जीने के तरीके से ही इस प्रकृति (Nature) का सीधा संबंध है। हमें इस प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर ही सस्टेनेबल लिविंग/संपोषणीय तरीके से अपनी दिनचर्या बनानी होगी। धरती सभी की है, सबका इस पर बराबरी का हक है। इसलिए इस पर हमारे द्वारा किया जाने वाला विकास सतत और टिकाऊ होना चाहिए। हम सभी को अपने अधिकारों के साथ ही अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए अपना उत्तरदायित्व निभाना सीखना होगा। मंज़िल पर पहुंचने की जल्दी न करते हुए रास्ते का लुत्फ उठाना सीखें।
कबीर कह गए हैं कि, ‘धीरे-धीरे गाड़ी हांको…।’
सतत विकास और टिकाऊ दीर्घकालिक दृष्टकोंण विचार का अर्थ है, जो आज की जरूरतों को पूरा करते हुए अपने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखे। हमारे आज के अतिभोग में कल के उपभोग की भी गुंजाइश रहे। प्रकृति का उपभोग हो, मगर लूट-पाट व दोहन नहीं। इसके लिए 5-6 सौ साल पहले कबीर अपने अंदाज में बहुत ही खूबसूरती से कहा है, ”धीरे-धीरे गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाला……..।” कबीर ने प्रक्रति के द्वारा समाज को सांसारिकता समझाने का प्रयास किया था।
कबीर ने कहा है कि, लगातार रंग-रंगीले जीवन की लालसा में हम अपनी गाड़ी को लाल-गुलाल रफ्तार से चलाने में लगे हैं। अपने मन की गाड़ी को छैल-छबीली से चलाने के चक्कर में भूल जाते हैं कि उसमें बैठने वाला राम ही है। धीरे-धीरे चलने से अच्छे कर्म करने वाले धर्मांत्मा पर उतरते हैं। ओर पापी तो चकनाचूर होते ही हैं, मगर हम अपनी भावी पीढ़ी को बचाने में भी अक्षम साबित हो जाते हैं। कबीर हमारी चेतनाओं में यह बात डाल गए है कि, हम सभी को यह बात रखना चाहिए कि जब राम के घर से टूटती है, तो कोई जड़ी-बूटी काम नहीं आती।
प्रकृति ही ईश्वर है :
प्रकृति के सतत विकास एवं स्वस्थ्य जीवनशैली का एकमात्र तरीका है कि, हमें प्रकृति से प्राप्त होने वाली चीजों का कम से कम दोहन करते हुए ही विकास का पहिया चलाएं। मनुष्य खुद को प्रकृति का संचालक न मान ले, बल्कि प्रकृति को ही ईश्वर मानते हुए अपनी रोजमर्रा की जीवनशैली चलाए। वह प्रकृति के प्रति सद्भाव और कृतज्ञना का भाव रखते हुए ही विकास की बुटेल ट्रेन का सपना देखे। हम अपने व्यक्तिगत वर्चस्व के लिए समाज को अंधकार में झोंकने का विकास न अपनाएं। प्रकृति तो सभी जीवों की है, नाकि सिर्फ मानव समाज की। मानव को स्वार्थ और लालसा के अर्थ की प्रवृत्ति के हिसाब से प्रकृति चलाने की इच्छा छोड़नी होगी।
जोशीमठ विनाश एक बड़ी सीख :
उत्तराखंड के जोशीमठ में अचानक ही भू-धंसाव नहीं हो रहा है, बल्कि मानवीय स्वार्थों का परिणाम है। पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र ने ऐसे ही विकास को अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल नहीं कहा था। उन्होंने कहा था कि अकाल से पहले अच्छे विचार और अच्छे कामों का अकाल आता है। उत्तराखंड में विचार के इसी अकाल का विनाश है, जो आज भी चलाया जा रहा है। कुछ लोगों के स्वार्थी विचारों के ही कारण विकास के विनाश का खेल धंस रहा है।
जोशीमठ के घरों में अचानक आई दरारों ने विकास के नाम पर हो रहे विनाश को संसार के सामने उजागर किया है। प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाए बिना आज तक कोई सभ्यता टिकी नहीं रह सकी है। लोकतंत्र का यही दुर्भाग्य है जब समाज खुद के आत्मिक, आध्यात्मिक के साथ ही आर्थिक विकास को सत्ता के भरोसे छोड़ देता है। सत्ता का स्वार्थ ही विकार के व्यभिचार से विनाश का विकास गढ़ती है और आध्यात्मिक स्थल जोशीमठ को पर्यटन की आर्थिकी का स्थल बनने दिया जाता है।
मानव स्वार्थ ही है विनाश का कारण :
प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठा कर जीने के लिए ही महात्मा गांधी ने कहा था कि, ‘धरती पर सभी के जीने की जरूरत के लिए पर्याप्त है, मगर एक के भी लालच के लिए कम है।‘ ये हमारी ही स्वार्थी लालसाएं हैं, जो हमें विनाश का विकास करने के लिए अभिप्रेरित करती हैं। इस 30 जनवरी को विनाश के ऐसे विकास को रोकने की प्रतिज्ञा ली जाए। मानवीय समाज की सामूहिक जागरूकता से ही इस विनाश के विकास पर लगाम कसी जा सकती है। जोशीमठ की दरारों के जरिए प्रकृति ने अपना मत समझा दिया है। अब सत्ता के मठाधीशों को भी यह समझना ही होगा।
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